Hindi poems on nature , प्रकृति पर कविताएं

Hindi poems on                   nature


Hindi poems on nature  आज इस पोस्ट में आपको कुछ प्रसिद्ध प्रकृति पर कविताएं दी गई हैं। यह  कविताएं मशहूर कवियो द्वारा लिखी गई हैं ।हमें उम्मीद हैं की यह आपको बहुत पसंद आएगी।
प्रकृति हमेशा हमें कुछ न कुछ देती हैं. इस से हमें जल, हवा, जडीबुटी, फल और बहुत कुछ मिलता हैं. प्रकृति से हमें जीवन जीने के लिए सब कुछ प्राप्त होता हैं. यह हमारे लिए जीवनदाई हैं.
'प्रकृति पर कविताएं' प्रकृति हमारे जीवन को सरल बनाती हैं. लेकिन अभी के समय में मानव अपने कुछ स्वार्थ लाभ के लिए प्रकृति से खिलवार कर रहा हैं. जो हमारे आने वाले पीढ़ियों पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ेगा. इसलिए आपसे निवेदन हैं की प्रकृति की रक्षा के लिए आप जो कर सकते हैं वह करें. और कम से कम एक पेड़ जरुर लगाएं.
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 प्रकृति की लीला न्यारी


प्रकृति की लीला न्यारी,
कहीं बरसता पानी, बहती नदियां,
कहीं उफनता समंद्र है,
तो कहीं शांत सरोवर है।
प्रकृति का रूप अनोखा कभी,
कभी चलती साए-साए हवा,
तो कभी मौन हो जाती,
प्रकृति की लीला न्यारी है।
कभी गगन नीला, लाल, पीला हो जाता है,
तो कभी काले-सफेद बादलों से घिर जाता है,
प्रकृति की लीला न्यारी है।
कभी सूरज रोशनी से जग रोशन करता है,
तो कभी अंधियारी रात में चाँद तारे टिम टिमाते है,
प्रकृति की लीला न्यारी है।
कभी सुखी धरा धूल उड़ती है,
तो कभी हरियाली की चादर ओढ़ लेती है,
प्रकृति की लीला न्यारी है।
कहीं सूरज एक कोने में छुपता है,
तो दूसरे कोने से निकलकर चोंका देता है,
प्रकृति की लीला न्यारी है।

नरेंद्र वर्मा

एक बूंद ने कहा


एक बूंद ने कहा, दूसरी बूंद से,
कहाँ चली तू यूँ मंडराए?
क्या जाना तुझे दूर देश है,
बन-थन इतनी संवराए,
जरा ठहर, वो बूंद उसे देख गुर्राई,
फिर मस्ती में चल पड़ी, वो खुद पर इतराए,
एक आवारे बादल ने रोका रास्ता उसका,
कहा क्यों हो तुम इतनी बौराए?
ऐसा क्या इरादा तेरा,
जो हो इतनी घबराए?
हट जा पागल मरे रास्ते से,
बोली बूंद जरा मुस्काए,
जो न माने बात तू मेरी,
तो दूँ मैं तुझे गिराए,
चली पड़ी फिर वो फुरफुराए, 
आगे टकराई वो छोटी बूंद से,
छोटी बूंद उसे देख खिलखिलाए,
कहा दीदी चली कहाँ तुम यूँ गुस्साए?
क्या हुआ झगड़ा किसी से,
जो हो तुम मुंह फुलाए?
कहा सुन छोटी बात तू मेरी,
जरा ध्यान लगाए,
मैं तो हूँ बूंद सावन की कहे जो तू,
तू लूँ खुद में समाए,
बरसे हूँ मैं खेत-खलिहानों में,
ताल-सराबर दूँ भरमाए,
वर्षा बन धरती पर बरसूँ,
प्रकृति को दूँ लुभाए,
लोग जोहे हैं राह मेरी,
क्यों हूँ मैं इतनी देर लगाए?
सुन छोटी, जाना है जल्दी मुझे,
दूँ मैं वन में मोर नचाए,
हर मन में सावन बसे हैं,
जाऊं मैं उनका हर्षाए,
हर डाली सुनी पड़ी है,
कह आऊँ कि लो झूले लगाए,
बाबा बसते कैलाश पर्वत पर,
फिर भी सब शिवालय में जल चढ़ाए,
हर तरफ खुशियाँ दिखे हैं,
दूँ मैं दुखों को हटाए,
पर तुम क्यों उदास खड़ी हो,
मेरी बातों पर गंभीरता जताए?
कहा दीदी ये सब तो ठीक है,
पर लाती तुम क्यों बाढ़ कहीं पर कहीं सूखा कहाए?
क्या आती नहीं दया थोड़ी भी,
कि लूँ मैं उन्हें बचाए?
न-न छोटी ऐसा नहीं है,
हर साल आती मैं यही बताए,
प्रकृति से न करो छेड़छाड़ तुम,
यही संदेश लोगों को सिखाए,
पर सुनते नहीं बात एक भी,
किस भाषा उन्हें समझाए?
समझ गई मैं दीदी तेरी हर भाषा,
अब न ज्यादा वक्त गंवाए,
मैं भी हूँ अब संग तुम्हारे,
चलो अपना संदेश धरती पर बरसाए,
कर लो खुद में शामिल तुम,
लो अपनी रूह बसाए,
आओ चलें दोनों धरती पर,
इक-दूजे पर इतराए।

हरी हरी खेतों में बरस रही है बूंदे


हरी हरी खेतों में बरस रही है बूंदे,
खुशी खुशी से आया है सावन,
भर गया खुशियों से मेरा आंगन।
ऐसा लग रहा है जैसे मन की कलियां खिल गई,
ऐसा आया है बसंत,
लेकर फूलों की महक का जशन।
धूप से प्यासे मेरे तन को,
बूंदों ने भी ऐसी अंगड़ाई,
उछल कूद रहा है मेरा तन मन,
लगता है मैं हूं एक दामन।
यह संसार है कितना सुंदर,
लेकिन लोग नहीं हैं उतने अकलमंद,
यही है एक निवेदन,
मत करो प्रकृति का शोषण।

सुन्दर रूप इस धरा का


सुन्दर रूप इस धरा का,
आँचल जिसका नीला आकाश,
पर्वत जिसका ऊँचा मस्तक,2
उस पर चाँद सूरज की बिंदियों का ताज
नदियों-झरनो से छलकता यौवन
सतरंगी पुष्प-लताओं ने किया श्रृंगार
खेत-खलिहानों में लहलाती फसले
बिखराती मंद-मंद मुस्कान
हाँ, यही तो हैं,……
इस प्रकृति का स्वछंद स्वरुप
प्रफुल्लित जीवन का निष्छल सार

डी. के. निवतियाँ

महका हुआ गुलाब


है महका हुआ गुलाब
खिला हुआ कंवल है,
हर दिल मे है उमंगे
हर लब पे ग़ज़ल है,
ठंडी-शीतल बहे ब्यार
मौसम गया बदल है,
हर डाल ओढ़ा नई चादर
हर कली गई मचल है,
प्रकृति भी हर्षित हुआ जो
हुआ बसंत का आगमन है,
चूजों ने भरी उड़ान जो
गये पर नये निकल है,
है हर गाँव मे कौतूहल
हर दिल गया मचल है,
चखेंगे स्वाद नये अनाज का
पक गये जो फसल है,
त्यौहारों का है मौसम
शादियों का अब लगन है,
लिए पिया मिलन की आस
सज रही “दुल्हन” है,
है महका हुआ गुलाब
खिला हुआ कंवल है…!!
इंदर भोले नाथ

सूरज निकला गगन में


सूरज निकला गगन में दूर हुआ अंधियारा,
पेड़ों ने ली अंगड़ाई, ठंडी ठंडी हवा चलाई,
पक्षियों ने भी नभ में छलांग लगाई।
हरे-भरे बागानों में रंग बिरंगे फूल खिले,
फूलों ने अजब सी महक फैलाई,
तितली, भंवरों को वो खींच लाई।
रसपान कर फूलों का सबने मौज उड़ाई,
देख प्रकृति की सुंदरता को,
कोयल भी धीमे-धीमे गुनगुनाए।
रंग बदलती प्रकृति हर पल मन को भाए,
नभ में कभी बादल तो कभी नीला आसमां हो जाए,
रूप तेरा देख कर हर कोई मन मोहित हो जाए।
झील, नदियां मीठा जल पिलाएं,
पर्वत हमें ऊंचाई को छुना सिखाएं,
प्रकृति हमें सब से प्रेम करना सिखाए।
रात के अंधियारे में चांद भी अपनी कला दिखाएं,
सफेद रोशनी से प्रकृति को रोशन कर जाए,
तारे भी टिमटिमा कर नाच दिखाएं।
प्रकृति हमें रूप अनेक दिखाती,
एक दूसरे से प्रेम करना सिखाती,
यही हमें जीवन का हर रंग बतलाती।
नरेंद्र वर्मा

Hindi poems on nature
प्रकृति पर कविताएं

 काली घटा छाई है


काली घटा छाई है
लेकर साथ अपने यह
ढेर सारी खुशियां लायी है
ठंडी ठंडी सी हव यह
बहती कहती चली आ रही है
काली घटा छाई है
कोई आज बरसों बाद खुश हुआ
तो कोई आज खुसी से पकवान बना रहा
बच्चों की टोली यह
कभी छत तो कभी गलियों में
किलकारियां सीटी लगा रहे
काली घटा छाई है
जो गिरी धरती पर पहली बूँद
देख ईसको किसान मुस्कराया
संग जग भी झूम रहा
जब चली हवाएँ और तेज
आंधी का यह रूप ले रही
लगता ऐसा कोई क्रांति अब सुरु हो रही
छुपा जो झूट अमीरों का
कहीं गली में गढ़ा तो कहीं
बड़ी बड़ी ईमारत यूँ ड़ह रही
अंकुर जो भूमि में सोये हुए थे
महसूस इस वातावरण को
वो भी अब फूटने लगे
देख बगीचे का माली यह
खुसी से झूम रहा
और कहता काली घटा छाई है
साथ अपने यह ढेर सारी खुशियां लायी है

बागो में जब बहार आने लगे


बागो में जब बहार आने लगे
कोयल अपना गीत सुनाने लगे
कलियों में निखार छाने लगे
भँवरे जब उन पर मंडराने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया !!
खेतो में फसल पकने लगे
खेत खलिहान लहलाने लगे
डाली पे फूल मुस्काने लगे
चारो और खुशबु फैलाने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया !!
आमो पे बौर जब आने लगे
पुष्प मधु से भर जाने लगे
भीनी भीनी सुगंध आने लगे
तितलियाँ उनपे मंडराने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया !!
सरसो पे पीले पुष्प दिखने लगे
वृक्षों में नई कोंपले खिलने लगे
प्रकृति सौंदर्य छटा बिखरने लगे
वायु भी सुहानी जब बहने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया !!
धूप जब मीठी लगने लगे
सर्दी कुछ कम लगने लगे
मौसम में बहार आने लगे
ऋतु दिल को लुभाने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया !!
चाँद भी जब खिड़की से झाकने लगे
चुनरी सितारों की झिलमिलाने लगे
योवन जब फाग गीत गुनगुनाने लगे
चेहरों पर रंग अबीर गुलाल छाने लगे
मान लेना वसंत आ गया… रंग बसंती छा गया !!
डी. के. निवातियाँ

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 जब तपता है सारा अंबर


जब तपता है सारा अंबर
आग बरसती है धरती पर|
फैलाकर पत्तों का छाता
सब को सदा बचाते पेड़|
पंछी यहां बसेरा पाते
गीत सुना कर मन बहलाते|
वर्षा, आंधी, पानी में भी
सबका घर बन जाते पेड़|
इनके दम पर वर्षा होती
हरियाली है सपने बोती|
धरती के तन मन की शोभा
बनकर के इठलाते पेड़|
जितने इन पर फल लग जाते
ये उतना नीचे झुक जाते|
औरों को सुख दे कर के भी
तनिक नहीं इतराते पेड़|
हमें बहुत ही भाते पेड़
काम सभी के आते पेड़|

माँ की तरह

माँ की तरह हम पर प्यार लुटाती है प्रकृति,
बिना मांगे हमें कितना कुछ देती जाती है प्रकृति…
दिन में सूरज की रोशनी देती है प्रकृति,
रात में शीतल चांदनी लती है प्रकृति…
भूमिगत जल से हमारी प्यास बुझाती है प्रकृति,
और बारिश में रिमझिम जल बरसाती है प्रकृति…
दिन-रात प्राणदायिनी हवा चलाती है प्रकृति,
मुफ्त में हमें ढ़ेरों साधन उपलब्ध करती है प्रकृति…
कहीं रेगिस्तान तो कहीं बर्फ बिछा रखे हैं इसने,
कहीं पर्वत खड़े किए तो कहीं नदी बहा रखे हैं इसने…
कहीं गहरे खाई खोदे तो कहीं बंजर जमीन बना रखे हैं इसने,
कहीं फूलों की वादियाँ बसाई त्यों कहीं हरियाली की चादर बिछाई है इसने…
मानव इसका उपयोग करे इससे इसे कोई ऐतराज नहीं,
लेकिन मानव इसकी सीमाओं को तोड़े यह इसको मंजूर नहीं…
जब-जब मानव उदंडता करता है, तब-तब चेतावनी देती है यह,
जब-जब इसकी चेतावनी नजरअंदाज की जाती है, तब-तब सजा देती है यह…
विकास की दौड़ में प्रकृति को नजरअंदाज करना बुद्धिमानी नहीं है,
क्योंकि सवाल है हमारे भविष्य का, यह कोई खेल-कहानी नहीं है…
मानव प्रकृति के अनुसार चले यही मानव के हित में है,
प्रकृति का सम्मान करें सब, यही हमारे हित में है।
 

आसमान की बाहों में


आसमान की बाहों में,
प्यारा सा वो चाँद,
न जाने मुझे क्यों मेरे,
साथी सा लग रहा है,
खामोश है वो भी,
खामोश हूँ मैं भी,
सहमा है वो भी,
सहमी हूँ मैं भी,
कुछ दाग उसके सीने पर,
कुछ दाग मेरे सीने पर,
जल रहा है वो भी,
जल रही हूँ मैं भी,
कुछ बादल उसे ढंके हुए,
और कुछ मुझे भी,
सारी रात वो जागा है,
और साथ में मैं भी,
मेरे अस्तित्व में शामिल है वो,
सुख में और दुःख में भी,
फिर भी वो आसमां का चाँद है,
और मैं… जमी की हया!

शोर इतना है यहाँ


शोर इतना है यहाँ कि खुद की आवाज दब जाती है,
धुंध इतनी है कि कुछ भी नजर नहीं आता।
चकाचौंध में दफन है तारे और चंद्रमा भी,
पहले पता होता कि शहर ऐसा होता है…
तो मैं भूलकर भी कभी शहर नहीं आता।
खलल इतना है यहाँ दिखावे और बनावटों का,
रोना भी चाहूँ तो आँखों से आंसू नहीं आता।
कोई माँ तो कोई मासुक की यादों में डूब जाता है,
आकर सोचता है काश! वो शहर नहीं आता।
इतनी भीड़ है कि खुद को भी पहचानना मुश्किल है,
सोचता हूँ कि आईना बनाया क्यूँ है जाता।
बदनसीब ही था वो कि गांवों में भूख न मिट सकी,
पेट की जद में न होता तो शहर नहीं आता।
वक्त इतना भी नहीं कि कभी खुलकर हंस लूँ,
ठोकरें लगती है तो खुद को संभाला नहीं जाता।
तन्हाई और दर्द की दास्तां से भरी पड़ी है शहर,
पहले जान जाता ये सब तो मैं शहर कभी नहीं आता।
रक्त और स्वेद में यहाँ फर्क नहीं है कोई,
शहर में रहकर भी शहर कोई जान नहीं पाता।
ऐसा लगता है सब जानकर अनजान बनते हैं,
ऐसे नासमझ शहर में मैं कभी नहीं आता।

महानगर के रहने वाले


महानगर के रहने वाले बेटे से
मिलने बापू-अम्मा आए
बीस मंजिले पर चढ़ने से
बहुत ही हैं घबराए।
चारों तरफ है कांक्रीट के जंगल
पशु-पक्षी हैं बिसराए
बंद हवा और धूप देखकर
मन ही मन पछताए।
दरबे जैसे घर में
बहू और बेटा बंद पड़े
ताजी हवा के झोंके
जैसे बीते दिन की बात हुई
पास में लेटा पोता राजा
अंगूठा चूस-चूस चिल्लाए
जोर-जोर से रोता देखकर
पाऊडर घोर-घोर पिलाए।
रोज सबेरे सब निकले घर छोड़कर
सांझ तक लौट न घर आए
छोटा बबुआ दिनभर रोये
झुनझुना देख-देख ललचाये
दादा-दादी की हैं आंखें भर आईं।
जीवन के इस रूप को देखकर
मन में वितृष्णा है हो आई
मृगतृष्णा से इस जीवन से
कैसे छुटकारा पाएं
सोच रहे हैं बुजुर्ग दंपति
मन ही मन भरमाए।

जब भास्कर आते हैं


जब भास्कर आते हैं खुशियों का दीप जलाते हैं,
जब भास्कर आते है अंधकार भगाते हैं।
जब सारथी अरुण क्रोध से लाल आता,
तब सारा विश्व खुशियों से नहाता।
वह लोगों को प्रहरी की भांति जगाए,
लोगों के मन में खुशियों का दीप जलाए।
जब सारा विश्व सो रहा होता है,
वह दुनिया को जगा रहा होता है।
उसके तेज से है सभी घबराते,
उसके आगे कोई टिक नहीं पाते।
उसके आने से होता है खुशियों में संचार,
उसके चले जाने से हो जाता अंधकार।
उसके चले जाने से दुनिया होती है निर्जन,
उसके आ जाने से धन्य होता जन-जन।
यदि शुर्य नहीं होता यह शोच के हम घबराते,
बिना शुर्य के प्रकाश के हम रह नहीं पाते।
शुर्य के आने से अंधकार घबराता,
उसके तेज के सामने वह टिक नहीं पाता।
इनके आने से होता धन्य-धन्य इंसान,
सभी उन्हें मानते हैं भगवान।
जब हिमालय पर आती उनकी लाली,
उनके आ जाने से हिम भी घबराती।
इनके आ जाने से जीवन में होता संचार,
आने से इनके होता प्रकाशमान संसार।

प्रकृति की है छवि निराले


प्रकृति की है छवि निराले,
क्षण-क्षण अपना दुखड़ा बदले,
तपती सूरज की किरणों से,
धरती के तन को दहकाए,
गरम हवा से सागर का जल,
भाप बन उड़-उड़ जाए,
उमड़-घुमड़ कर बादल बनते,
तड़-तड़-तड़ बिजिल चमकाते,
काले-काले नभ के बादल,
छम-छम-छम बरसा करते,
वर्षा धरती की प्यास बुझाती,
चारों ओर हरियाली छाती,
तरह-तरह के हम सब्जी पाते,
फल-फूलों से घर भर जाते,
पृथ्वी जब थर्राती जाड़े से,
सूरज की किरने उसे बचाती,
घर बगिया में बिखर-बिखर,
खेतों में वो फसल पकाती,
सौरभ की शीतल छाया में,
चंचल पग से धरती पर चलती।

  

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